कविता
जब घर के बड़े बुजुर्ग चले जाते है
घर के दरवाजे रोशनदान हो जाते हैं!
ड्योइयों के बँटवारे हो जाते है
आँगन फिर वीरान हो जाते हैं!
रिश्तों में चुन जाती है दीवारें
खुशियों के कटोरों में छेद हो जाते हैं!
उस घर के इतिहास लिखे कैलेंडर
फिर सड़कों पर बिखर जाते हैं!
देहरी पर पड़ी बुज़ुर्ग की चप्पल से
हमेशा डरे सहमे से रहे, मवाली!
उसी गली के शेर हो जाते हैं!
रोशनदान बने हुए दरवाजे
कई जोड़ी आँखें बन जाते हैं!
जीवित भारत का एक टुकड़ा
आज सुबह उठते ही चाय की प्याली के साथ जैसे ही अपना ईमेल खोला तो, 2 ईमेल एक साथ देखते ही, बहुत ही सुखद अनुभूति हुई. पहली ईमेल गांधी जी को याद करते हुए, उनकी स्मृति में ,"विश्व अहिंसा एवम शांति दिवस ", मनाने के उपलक्ष्य में एक अहिंसावादी विचारदार में विश्वास रखने वाली संस्था ने भेजी थी, और दूसरी
एक और ईमेल बच्चों के संस्था के तरफ से थी....उसमे मजे की बात यह थी, कि
यह संस्था बच्चों के लिए और बच्चों द्वारा ही चलायी जाती है....!
इन ईमेल को देखकर, सबसे पहली बात जो दिमाग में आई वो यह कि....हम कहाँ अपना भारत पीछे छोड़ आये हैं...हम तो भारत का एक टुकड़ा अपने ही तो साथ लायें है. और वो टुकड़ा हमेशा से जीवित है...जिसकी मिसाल यह ईमेल हैं. आज अमरीका में बसे प्रवासी भारतीय के मन में यह सवाल कुछ धुंधला सा होता जा रहा है...."कि अपना देश छोड़ कर हम यहाँ क्यों आ बसे हैं. हमारे इस फैसले से कहीं हमारें बच्चें अपनी संस्कृती और भाषा से दूर तो नहीं हो जायेंगे?..आदि आदि "! भारत से अमरीका आने का वैसे तो एकमात्र कारण आर्थिक बहुलता , धन वैभव अवम एक उत्तम जिंदगी बसर करना ही है. पर साथ ही में वो बच्चों को बिलकुल उसी प्रकार से पालना और संस्कार देना चाहते है..जैसे वो भारत में रहते हुए दे सकते थे.. और बिलकुल वैसा होना संभव भी हो पा रहा है, तो उसका श्रेय, यहाँ की बहुत सी सामाजिक संस्थाएं और स्कूल्स को भी जाता है....जो हर अवसर...चाहे वो कोई धार्मिक त्यौहार हो, गांधी जी या चाचा नेहरु का जन्मदिन हो, संस्थाओं और कम्युनिटी की तरफ से गाहे बगाहे तरह तरह से कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं . तरह तरह की प्रतोयोगिताएं भी होती रहती हैं जैसे लघु कथा...स्पेलींग बी ..चित्रकला, नृत्य और गायन! बल्कि मेरा तो यह मानना है कि, यहाँ के प्रवासी बच्चें, न सिर्फ भारतीय संस्कृति की जानकारी पाते हैं, बल्कि यहाँ रहने की वजह से यहाँ की संस्कृति को भी जानने का अवसर पाते हैं और समय से आगे रहने की दौड़ में शामिल हो कर जल्दी ही समझदार भी हो जाते हैं..
लगभग हर प्रवासी भारतीय घर में अपनी प्रादेशिक भाषा के टीवी चैनलों की सुविधायें
हैं. फलस्वरूप भारत में अन्ना हजारे जी के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की हवा से यहाँ के बच्चे भी अछूते नहीं रहे. वो जानते है की अन्ना जी कौन है और किस मकसद के लिए उन्होंने अनशन किया था.
यहाँ के बच्चों की जीवन शैली भारतीय हो, इसका पूरा पूरा ख्याल अभिवावक रखते हैं. जैसे भारतीय मित्र ही जयादा बने, नियमित मंदिर जाना और त्योहारों में हिस्सा लेना, भारतीय खान-पान, सिनेमा ,नृत्य अवम गीत-संगीत सभी भारतीय हों!
अब बात जहाँ हिंदी भाषा की, या भारतीय प्रांतीय भाषा की आती है , तो यहाँ थोड़ी समझोते की स्थिति पैदा हों ही जाती है ! ऐसा नहीं है की बच्चें भारतीय भाषाओँ से अनभिज्ञ है. पर उसके लिए अतिरिक्त प्रयास करने पड़ते हैं. बोलना तो घर में ही सीख लेते है..पर लिखना सीखने के लिए उन्हें अलग से समय निकाल कर भाषा-स्कूल में जाना होता है..
नयी पीढ़ी पूर्व और पश्चिम का संतुलन बनाये रखने का मापदंड भी अच्छी तरह से जानती है. अभिवावकों के मार्गदर्शन के कारण अमरीका में रहते हुए भी नयी पौध को खूब पता है की...कार्यशैली और तकनिकी ज्ञान तो पश्चिम का होना चाहिए पर धर्म, संस्कृति, सामजिक और पारिवारिक मूल्य पूर्व यानी भारत के ही हों..तभी वो एक संतुलित जीवन जी पायेंगे. प्रत्येक प्रवासी अभिवावक का हमेशा भरसक प्रयास है की भारतीयता रुपी वृक्ष की हरेक शाखा को उनके बच्चे छू पाएं, इस अहसास के साथ की वो साथ में लाये हुए भारत के टुकड़े को अपने अन्दर जीवित रखना जानते है.