Monday 22 September 2014

सुख के खरगोश

वक्त की खूंटी पर

मेरी जिंदगी को

टांग कर अक्सर

मेरे ही दर्द

नहाने चल देते हैं

नदी में

उजले हो कर लौटते हैं

और

गुनगुनाते हुए

मेरी पीढ़ा के दंश को

नाग बन चूस लेते हैं

सहमे से मेरे प्राण

सुख के खरगोश

ढूंढने लगते हैं।

Sunday 14 September 2014

आत्मनिर्णय



मैं कमजोर थी
तुम्हारे हित में,
सिवाय चुप रहने के
और कुछ नहीं किया मैंने
अब अंतर के
आंदोलित ज्वालामुखी ने
मेरी भी सहनशीलता की
धज्जियाँ उड़ा दीं
मैंने चाहा, कि मैं
तुमसे सिर्फ नफरत करूँ
मैं चुप रही
तुमने मेरी चुप को
अपने लिए सुविधाजनक मान लिया था
मैं खुराक के नाम पर सिर्फ
आग ही खाती रही थी,
तुम तो यह भी भूल गए थे कि
आदमी के भीतर भी
एक जंगल होता है
और, आत्मनिर्णय के
संकटापन्न क्षणों में
उग आते हैं मस्तिष्क में
नागफनी के काँटे,
हाथों में मजबूती से सध जाती है
निर्णय की कुल्हाड़ी
फिर अपने ही एकांत में
खोये एहसास की उखड़ी साँसों का शोर
जंगल का एक रास्ता
दिमाग से जुड़ जाता है
उन्ही कुछ ईमानदार क्षणों में
मैंने भी अंतिम निर्णय ले लिया है
मेरी चुप्पी में कहीं एक दरार सी पड़ गयी है
तेरे-मेरे रिश्ते का सन्नाटा
आज टूट कर बिखर गया है